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Sunday, 5 January 2025

राजस्थान लोक गायन शैलियां(Folk singing styles)

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राजस्थान लोक गायन शैलियां(Folk singing styles)


1. माण्ड गायन शैली

10 वीं 11 वीं शताब्दी में जैसलमेर क्षेत्र माण्ड क्षेत्र कहलाता था। अतः यहां विकसित गायन शैली माण्ड गायन शैली कहलाई।
एक श्रृंगार प्रधान गायन शैली है।

प्रमुख गायिकाएं
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अल्ला-जिल्हा बाई (बीकानेर) – केसरिया बालम आवो नही पधारो म्हारे देश।
गवरी देवी (पाली) भैरवी युक्त मांड गायकी में प्रसिद्ध
गवरी देवी (बीकानेर) जोधपुर निवासी सादी मांड गायिका।
मांगी बाई (उदयपुर) राजस्थान का राज्य गीत प्रथम बार गाया।
जमिला बानो (जोधपुर)
बन्नों बेगम (जयपुर) प्रसिद्ध नृतकी “गोहरजान” की पुत्री है।

2. मांगणियार गायन शैली

राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र विशेषकर जैसलमेर तथा बाड़मेर की प्रमुख जाति मांगणियार जिसका मुख्य पैसा गायन तथा वादन है।
मांगणियार जाति मूलतः सिन्ध प्रान्त की है तथा यह मुस्लिम जाति है।
प्रमुख वाद्य यंत्र कमायचा तथा खड़ताल है।
कमायचा तत् वाद्य है।
इस गायन शैली में 6 रंग व 36 रागिनियों का प्रयोग होता है।
प्रमुख गायक 1 सदीक खां मांगणियार (प्रसिद्ध खड़ताल वादक) 2 साकर खां मांगणियार (प्रसिद्ध कम्रायण वादक)

3. लंगा गायन शैली

लंगा जाति का निवास स्थान जैसलमेर-बाडमेर जिलों में है।
बडवणा गांव (बाड़मेर) ” लंगों का गांव” कहलाता है।
यह जाति मुख्यतः राजपूतों के यहां वंशावलियों का बखान करती है।
प्रमुख वाद्य यत्र कमायचा तथा सारंगी है।
प्रसिद्ध गायकार 1 अलाउद्दीन खां लंगा 2 करीम खां लंगा

4. तालबंधी गायन शैली

औरंगजेब के समय विस्थापित किए गए कलाकारों के द्वारा राज्य के सवाईमाधोपुर जिले में विकसित शैली है।
इस गायन शैली के अन्तर्गत प्राचीन कवियों की पदावलियों को हारमोनियम तथा तबला वाद्य यंत्रों के साथ सगत के रूप में गाया जाता है।
वर्तमान में यह पूर्वी क्षेत्र में लोकप्रिय है।


5. हवेली संगीत गायन शैली

प्रधान केन्द्र नाथद्वारा (राजसमंद) है।
औरंगजेब के समय बंद कमरों में विकसित गायन शैली।

Sunday, 30 April 2023

राजस्थान की प्रमुख हवेलियां

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राजस्थान की प्रमुख हवेलियां


1. सुराणों की हवेलियां = चुरू जिले मे स्थित है

2. रामविलास गोयनका की हवेली-= चुरू जिले मे स्थित है

3. मंत्रियों की मोटी हवेली = चुरू जिले मे स्थित है

4. बच्छावतों की हवेली = बीकानेर जिले मे स्थित है

5. बिनाणियों की हवेली = सीकर जिले मे स्थित है

6. पंसारियों की हवेली = सीकर जिले मे स्थित है

7. पुरोहित जी की हवेली = जयपुर जिले मे स्थित है

8. रत्नाकर पुण्डरिक भट्ट की हवेली= जयपुर जिले मे स्थित है

9. बडे़ मियां की हवेली = जैसलमेर जिले मे स्थित है

10. नथमल की हवेली = जैसलमेर जिले मे स्थित है

11. पटवों की हवेली= जैसलमेर जिले मे स्थित है

12. सालिम सिंह की हवेली = जैसलमेर (9 खंडों की हवेली) जिले मे स्थित है

13. बागोर हवेली = उदयपुर (इसमें पश्चिमी क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना 1986 में हुई।) जिले मे स्थित है

14. मोहन जी की हवेली = उयपुर जिले मे स्थित है

15. पुश्य हवेली = जोधपुर जिले मे स्थित है

16. पच्चीसा हवेली = जोधपुर

17. नाथूराम पोद्दार की हवेली = बिसाऊ (झुनझुनू) जिले मे स्थित है

18. सेठ जयदयाल केडिया की हवेली = बिसाऊ (झुनझुनू)

19. रामनाथ गोयनका की हवेली = मण्डावा (झुनझुनू जिले मे स्थित है

20. सोने -चांदी की हवेली = महनसर (झुनझुनू)जिले मे स्थित है

21. ईसरदास मोदी की हवेली = झुनझुनू जिले मे स्थित है

22. पोद्दार और भगरिया की हवेलियां= नवलगढ़ (झुनझुनू)जिले मे स्थित है

23. भगतों की हवेली = नवलगढ (झुनझुनू) जिले मे स्थित है

24. सुनहरी कोठी = टोंक जिले मे स्थित है

Thursday, 2 February 2023

राजस्थान की हस्तकला (Handicrafts of Rajasthan)

राजस्थान की प्रमुख हस्तशिल्प कलाएं

• हाथों के द्वारा कलात्मक व आकर्षक वस्तुएं बनाना हस्तशिल्प कला कहलाती है।
• राजस्थान में हस्तशिल्प कला का सबसे बड़ा केंद्र बोरानाडा जोधपुर में है ।

• राजस्थान औद्योगिक नीति - 1988
• इस नीति में हस्तशिल्प को बढ़ावा दिया गया ।

1. ब्लॉक प्रिंटिंग :– हाथ से कपड़े पर छपाई ।
✍️ प्रमुख केंद्र :-
• बालोतरा बाड़मेर 
• बाड़मेर 
• सांगानेर जयपुर
• बगरू जयपुर 
• आकोला चित्तौड़गढ़

✍️ कपड़े पर हाथों से परंपरागत तरीके से छपाई करना ब्लॉक प्रिंटिंग छपाई कहलाती है।
✍️ ब्लॉक प्रिंटिंग करने वालों को छीपे कहा जाता है।
 
✍️बाड़मेर में खत्री परिवार के लोग इस कला में दक्ष है ।

✍️ सांगानेर में नामदेव के छीपे प्रसिद्ध है।

अजरक प्रिंट - बालोतरा बाड़मेर 
• नीले एवं लाल रंग का प्रयोग ।

 मलेर प्रिंट - बाड़मेर 
• कत्थई व काले रंग का प्रयोग।

 जाजम प्रिंट - अकोला चित्तौड़गढ़ 
• लाल‌ हरे रंग का प्रयोग ।

दाबू  प्रिंट - आकोला चित्तौड़गढ़ 
• लाल व काले रंग का विशेष प्रयोग।

सांगानेरी प्रिंट - सांगानेर जयपुर 
•प्राकृतिक रंगों का प्रयोग।

कशीदाकारी कला

• धागों से हाथों के द्वारा कपड़े पर कलात्मक एवं आकर्षक डिजाइन बनाना कशीदाकारी कला कहलाती है।
• प्रमुख केंद्र - बाड़मेर , जैसलमेर , जालौर

बंधेज कला 
• मूलत: मुल्तान की कला
• कपड़ों पर रंग चढ़ाने की एक तकनीक बंधेज कला का लाती है।
• बंधेज कला का सर्वप्रथम उल्लेख बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित्त नामक ग्रंथ में मिलता है।
• बंधेज कार्य के लिए जोधपुर के तैय्यब खान को पदमश्री पुरस्कार मिला ।
• राजस्थान में बंधेज चढ़ाने का कार्य चड़वा जाति के द्वारा किया जाता है ।
• प्रमुख केंद्र -  जोधपुर, जयपुर, सुजानगढ़ (चूरू), शेखावटी

पोमचा :-  जच्चा स्त्री का वस्त्र
• पोमचा वंश वृद्धि का प्रतीक माना जाता है ।
• प्राय: पोमचा पीले रंग का होता है।
• पुत्र के जन्म पर पीले रंग & पुत्री - गुलाबी रंग का पोमचा
 ननिहाल पक्ष द्वारा लाया जाता है।
• हाडोती क्षेत्र में विधवा महिलाएं महिलाएं काले रंग की ओढ़नी ओढ़ती है, जिसे चीड़ का पोमचा कहा जाता है।
• राजस्थान में जयपुर का पोमचा प्रसिद्ध है।
• मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत ग्रंथ में पोमचा का उल्लेख मिलता है ।

लहरिया :- राजस्थान में जयपुर का प्रसिद्ध विवाहित महिलाएं श्रावण मास वह तीज त्योहार के अवसर पर लहरदार ओढ़नी ओढ़ती है, जिसे लहरिया कहा जाता है।

• रंग 3 का लहरिया 
• पचरंगा लहरिया 
• सतरंगी लहरिया 
प्रकार -
 खत, पाटली, जालदार, पलू, नगीना, फोहनीदार, पचलड।


मोठड़ा :- 
• राजस्थान में मोठडा जोधपुर का प्रसिद्ध है।
• लहरिया की लहरदार धारियां जब एक दूसरे को काटती है तो उसे मोठड़ा कहा जाता है।

चुनरी :-
• बूंदों के आधार पर बनी बंधेज डिजाइन चुनरी कहलाती है 
• जयपुर, जोधपुर, सुजानगढ़ (चूरू), मेड़ता (नागौर)

मूर्तिकला
• राजस्थान में मूर्तिकला का सर्वाधिक कार्य जयपुर में होता है।
 
• लाल रंग की मूर्तियां - अलवर 
• सफेद संगमरमर की मूर्तियां - किशनगढ़ अजमेर 
• काले रंग की मूर्तियां - तलवाड़ा (बांसवाड़ा)

ब्लू पॉटरी 
• यह कला मूलतः ईरान या पर्शिया की है , जो मुगल दरबार होते हुए राजस्थान में सर्वप्रथम आमेर में मिर्जा राजा मानसिंह के काल में आईं।
• चीनी के बर्तनों पर विभिन्न रंगों का प्रयोग करके डिजाइन बनाई जाती है - हरे, नीले, काले, सफेद,

कृपाल सिंह शेखावत - ब्लू पॉटरी कला के जनक 
इन्होंने 25 रंगों का प्रयोग करके एक नई पोटरी विकसित की जिसे कृपाल पोटरी कहा गया।

तारकशी के जेवर - नाथद्वारा राजसमंद 
• चांदी के तारों से जेवर बनाए जाते हैं।

लाख का काम - जयपुर 
• खिलौने, चूड़ियां सजावटी की सामग्री 

हाथी दांत का काम - जयपुर 
• खिलौने चूड़ियां सजावटी की सामग्री 

मृण्मूर्तियां / टेराकोटा पद्धति :- मोलेला गांव राजसमंद 
• मिट्टी से छोटी छोटी मूर्तियां बनाने की कला टेराकोटा पद्धति 

कोफ्तगिरी कला :- जयपुर
• मूलतः यह कला दमरिक की है जो भारत में सर्वप्रथम पंजाब राज्य में आई ।
• फौलाद की वस्तुओं पर सोने के पतले तारों की जडाई को कोफ्तगिरी कला कहा जाता है ।

कुंदन कला :- जयपुर
• किसी भी स्वर्णिम आभूषण में कीमती पत्थर जोड़ने की कला को कुंदन कला कहा जाता है। 
• मूलतः यह कला फारस / ईरान की कला है ।

मीनाकारी कला :- जयपुर
• किसी भी स्वर्ण आभूषण में मीना /नगीना जड़ने की कला को मीनाकारी कला कहा जाता है।
• मूलतः ईरान/ फारस

थेवा कला :- 
• प्रतापगढ़ में कांच पर सोने का काम थेवा कला के नाम से प्रसिद्ध है।
• थेवा कला विश्व में केवल प्रतापगढ़ के सोनी परिवार तक ही सीमित है।
• प्रक्रिया :- तैरना
            ‌‌     वादा 
• जनक - नाथूराम जी सोनी 
• प्रायः हरे शीशे पर सोने की नक्काशी करना थेवा कला का लाती है ।


• कागदी टेराकोटा - अलवर 

• सरसों का इंजन छाप तेल - भरतपुर 
• सरसों का वीर बालक तेल - जयपुर 

• दरी उद्योग - टोंक
• नमदा उद्योग - टोंक 

• टांकला गांव नागौर - यहां की दरिया प्रसिद्ध है।

• रमकडा़ उद्योग - गलियाकोट ( डूंगरपुर )

• पाव रजाई - जयपुर 

• पान मेथी(खुशबूदार) - नागौर 

• बादला - जोधपुर ( जिंक धातु से निर्मित शीतल जल का पत्र )

• मोचड़ी उद्योग - जोधपुर 
• बडू गांव (नागौर) :- यहां की जूतियां प्रसिद्ध है

• राम कड़ा उद्योग - गलियाकोट डूंगरपुर 

• खेल का सामान - हनुमानगढ़ 

• कृषि के उपकरण - गंगानगर (रायसिंहनगर) और नागौर

• रसदार फल - झालावाड़ 

• लकड़ी का नक्काशीदार फर्नीचर - बाड़मेर 

• आम के पापड़ - बांसवाड़ा 

• लकड़ी के कवाड़ - बस्सी ( चित्तौड़गढ़ )
• लकड़ी के झूले - जोधपुर 
• लकड़ी के खिलौने - चित्तौड़गढ़, उदयपुर, सवाई माधोपुर
 
• ऊनी कम्बल - गडरारोड (बाड़मेर )

• ब्लैक पॉटरी - कोटा 

• कागज़ी पॉटरी - अलवर

• मटकी - बीकानेर 

• मिरर वर्क - जैसलमेर

• सूंघनी नसवार - ब्यावर (अजमेर) 

• गलीचे उद्योग - बीकानेर & जयपुर 


उस्तां कला :- बीकानेर 
ऊंट की खाल को मुलायम बनाकर कूप्पा कुप्पिया बनाना तथा उस पर सोने की नक्काशी करना, उस्तां कला कहलाती है।

Tuesday, 24 January 2023

राजस्थान के लोक गीत (Rajasthan folk Music)

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राजस्थान के लोक गीत


1. झोरावा गीत :-

जैसलमेर क्षेत्र का लोकप्रिय गीत जो पत्नी अपने पति के वियोग में गाती है।

2. सुवटिया :-

उत्तरी मेवाड़ में भील जाति की स्त्रियां पति -वियोग में तोते (सूए) को संबोधित करते हुए यह गीत गाती है।

3. पीपली गीत :-

मारवाड़ बीकानेर तथा शेखावटी क्षेत्र में वर्षा ऋतु के समय स्त्रियों द्वारा गया जाने वाला गीत है।

4. सेंजा गीत :-

यह एक विवाह गीत है, जो अच्छे वर की कामना हेतु महिलाओं द्वारा गया जाता है।

5. कुरजां गीत :-

यह लोकप्रिय गीत में कुरजां पक्षी को संबोधित करते हुए विरहणियों द्वारा अपने प्रियतम की याद में गाया जाता है, जिसमें नायिका अपने परदेश स्थित पति के लिए कुरजां को सन्देश देने का कहती है।

6. जकड़िया गीत :-

पीरों की प्रशंसा में गाए जाने वाले गीत जकड़िया गीत कहलाते है।

7. पपीहा गीत :-

पपीहा पक्षी को सम्बोधित करते हुए गया गया गीत है। जिसमें प्रेमिका अपने प्रेमी को उपवन में आकर मिलने की प्रार्थना करती है।

8. कागा गीत :-

कौवे का घर की छत पर आना मेहमान आने का शगुन माना जाता है। कौवे को संबोधित करके प्रेयसी अपने प्रिय के आने का शगुन मानती है और कौवे को लालच देकर उड़ने की कहती है।

9. कांगसियों :-

यह राजस्थान का एक लोकप्रिय श्रृंगारिक गीत है।

10. हमसीढो :-

भील स्त्री तथा पुरूष दोनों द्वारा सम्मिलित रूप से मांगलिक अवसरों पर गाया जाने वाला गीत है।

11. हरजस :-

यह भक्ति गीत है, हरजस का अर्थ है हरि का यश अर्थात हरजस भगवान राम व श्रीकृष्ण की भक्ति में गाए जाने वाले भक्ति गीत है।

12. हिचकी गीत :-

मेवात क्षेत्र अथवा अलवर क्षेत्र का लोकप्रिय गीत दाम्पत्य प्रेम से परिपूर्ण जिसमें प्रियतम की याद को दर्शाया जाता है।

13. जलो और जलाल :-

विवाह के समय वधु पक्ष की स्त्रियां जब वर की बारात का डेरा देखने आती है तब यह गीत गाती है।

14. दुप्पटा गीत :-

विवाह के समय दुल्हे की सालियों द्वारा गया जाने वाला गीत है।

15. कामण :-

कामण का अर्थ है - जादू-टोना। पति को अन्य स्त्री के जादू-टोने से बचाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला गीत है।

16. पावणा :-

विवाह के पश्चात् दामाद के ससुराल जाने पर भोजन के समय अथवा भोजन के उपरान्त स्त्रियों द्वारा गया जाने वाला गीत है।

17. सिठणें :-

विवाह के समय स्त्रियां हंसी-मजाक के उद्देश्य से समधी और उसके अन्य सम्बन्धियों को संबोधित करते हुए गाती है।

18. मोरिया गीत :-

इस लोकगीत में ऐसी बालिका की व्यथा है, जिसका संबंध तो तय हो चुका है लेकिन विवाह में देरी है।

19. जीरो :-

जालौर क्षेत्र का लोकप्रिय गीत है। इस गीत में स्त्री अपने पति से जीरा न बोने की विनती करती है।

20. बिच्छुड़ो :-

हाडौती क्षेत्र का लोकप्रिय गीत जिसमें एक स्त्री जिसे बिच्छु ने काट लिया है और वह मरने वाली है, वह पति को दूसरा विवाह करने का संदेश देती है।

21. पंछीडा गीत :-

हाडौती तथा ढूढाड़ क्षेत्र का लोकप्रिय गीत जो त्यौहारों तथा मेलों के समय गाया जाता है।

22. रसिया गीत :-

रसिया होली के अवसर पर ब्रज, भरतपुर व धौलपुर क्षेत्रों के अलावा नाथद्वारा के श्रीनाथजी के मंदिर में गए जाने वाले गीत है।

23. घूमर :-

गणगौर अथवा तीज त्यौहारों के अवसर पर स्त्रियों द्वारा घूमर नृत्य के साथ गाया जाने वाला गीत है, जिसके माध्यम से नायिका अपने प्रियतम से श्रृंगारिक साधनों की मांग करती है।

24. औल्यूं गीत :-

ओल्यू का मतलब 'याद आना' है।बेटी की विदाई के समयय गाया जाने वाला गीत है।

25. लांगुरिया :-

करौली की कैला देवी की अराधना में गाये जाने वाले भक्तिगीत लांगुरिया कहलाते है।

26. गोरबंध :-

गोरबंध, ऊंट के गले का आभूषण है। मारवाड़ तथा शेखावटी क्षेत्र में इस आभूषण पर गीत गाया जाता है।

27. चिरमी :-

चिरमी के पौधे को सम्बोधित कर बाल ग्राम वधू द्वारा अपने भाई व पिता की प्रतीक्षा के समय की मनोदशा का वर्णन है।

28. पणिहारी :-

इस लोकगीत में राजस्थानी स्त्री का पतिव्रता धर्म पर अटल रहना बताया गया है।

29. इडुणी :-

यह गीत पानी भरने जाते समय स्त्रियों द्वारा गाया जाता है। इसमें इडुणी के खो जाने का जिक्र होता है।

30. केसरिया बालम :-

यह एक प्रकार का विरह युक्त रजवाड़ी गीत है जिसे स्त्री विदेश गए हुए अपने पति की याद में गाती है।

31. घुडला गीत :-

मारवाड़ क्षेत्र का लोकप्रिय गीत है, जो स्त्रियों द्वारा घुड़ला पर्व पर गाया जाता है।

32. लावणी गीत :- (मोरध्वज, सेऊसंमन- प्रसिद्ध लावणियां)

लावणी से अभिप्राय बुलावे से है। नायक द्वारा नायिका को बुलाने के सन्दर्भ में लावणी गाई जाती है।

33. मूमल :-

जैसलमेर क्षेत्र का लोकप्रिय गीत, जिसमें लोद्रवा की राजकुमारी मूमल का सौन्दर्य वर्णन किया गया है। यह एक श्रृंगारिक गीत है।

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Monday, 23 January 2023

राजस्थान लोक नृत्य(Folk dance of rajasthan)

राजस्थान लोक नृत्य(Folk dance of rajasthan)


  जातीय लोक नृत्य :-

भीलों के नृत्य
इनमें विभिन्न प्रकार के नृत्य करते हैं सामूहिक नृत्य में आधा वृत पुरूषों का आधा महिलाओं का होता है कुछ में बीच में छाता लेकर कंधों पर हाथ रख कर पद संचालन किया जाता है
(1)राई या गवरी नृत्य -यह नृत्य नाटक है जो सावन भादो में भील प्रदेशों में किया जाता है इसके प्रमुख पात्र भगवान शिव जी होते हैं माँ पार्वती के कारण ही नृत्य का नाम गवरी पड़ा। शिव को पूरिया कहा जाता है। इनके चारों ओर समस्त नृत्यकार मांदल व थाली की ताल पर नृत्य करते हैं



(2)गवरी की घाई -विभिन्न प्रसंगों को एक प्रमुख प्रंसग से जोड़ने वाला सामूहिक नृत्य
(3)युद्ध नृत्य -भीलों द्वारा पहाड़ी क्षेत्रों में हथियार के साथ तालबद्ध नृत्य
(4)द्विचकी नृत्य -विवाह के अवसर पर महिलाओं व पुरुषों के द्वारा वृत बनाकर करने वाला नृत्य
लोकनृत्य घूमरा -बांसवाड़ा, उदयपुर डूंगरपुर के भील महिलाओं के द्वारा ढोल व थाली के साथ घूम कर किया जाता है

गरासियों के नृत्य
(1)वालर नृत्य -बिना वाघ के धीमे गति से अाधा वृत बनाकर कंधे पर हाथ रख कर किया जाता है नृत्य का प्रांरभ पुरूष के द्वारा हाथ में छाता या तलवार लेकर किया जाता है
भारत सरकार ने वालर नृत्य पर डाक टिकट जारी किया है

लूर, कूद, मांदल, गौर, जवारा, मोरिया नृत्य इस जाति के हैं

घुमंतू जाति के नृत्य
कंजर जाति के नृत्य
(1)चकरी नृत्य -ढोलक, मंजीरा, नंगाडे की लय पर युवतियों के द्वारा किया जाता है हाड़ौती अंचल का प्रसिद्ध नृत्य है

(2)धाकड़ नृत्य -हथियार लेकर किया जाता है जिसमें युद्ध की सभी कलाएं प्रदशिर्त की जाती है

सांसियो के नृत्य
यह मेवात की जाति हैं इनके नृत्य अटपटे व कलात्मक होते हैं। अंग संचालन उत्तम होता है। इनका संगीत कर्णप्रिय नहीं होता है
इसमें पुरूष व महिलाएं आमने सामने स्वच्छंद अंग भंगिमाएं बनाते हुए नृत्य होता है

कालबेलियों के नृत्य
इनमें अधिकतर महिलाएं नृत्य करती है पूंगी,खंजरी, मोरचंग वाघ होते हैं कलात्मक लहंगे, अोढनी अंगरखी पहनते हैं

(1)इन्डोणी नृत्य -खंजरी वाघ पर किया जाता है
(2)शंकरिया नृत्य -परिणय कथा पर आधारित नृत्य
(3)पणिहारी नृत्य -ढोलक व बांसुरी पर किया जाता है



(4). गुलाबो कालबेलिया नृत्य - यह नृत्यांगना अंतर राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है

गडरिया लुहारो के नृत्य -इसमें सामूहिक संरचना न हो कर गीत के साथ स्वच्छंद नृत्य किया जाता है

बणजारों के नृत्य -इनके गीत व नृत्य बेहद कर्ण प्रिय होते हैं ढोलकी प्रमुख वाघ है। मछली नृत्य, नेजा नृत्य प्रमुख हैं
मछली नृत्य पूर्णिमा के रात होने वाला नृत्य नाटक है

कथौडी जनजाति के नृत्य

(1)मावलिया नृत्य -नवरात्रि में 9दिन किया जाता है

(2)होली नृत्य -होली पर किया जाने वाला नृत्य

मेवो के नृत्य
(1)रणबाजा नृत्य -यह विशेष नृत्य है महिलाओं व पुरुषों के द्वारा किया जाता है
(2)रतवई नृत्य -अलवर जिले में महिलाओं के द्वारा किया जाता है

गूजरों के नृत्य
(1)चरी नृत्य -यह नृत्य चरी लेकर किया जाता है। सिर पर कलश व उसमें कपास (काकडे ) के बीज में तेल डालकर आग लगा दी जाती है फिर कलश लेकर नृत्य प्रारंभ किया जाता है बांकिया, ढोल व थाली से संगीत उत्पन्न करते हैं
किशनगढ़ क्षेत्र के आसपास किया जाने वाला नृत्य
किशनगढ़ की फलकू बाई इस नृत्य की प्रमुख नृत्यांगना है

भोपो के नृत्य
राजस्थान में गोगाजी, पाबू जी, देवजी, भैरू जी आदि के पड के सामने इनकी गाथा का वर्णन करते हुए नृत्य किया जाता है
कठपुतली नृत्य भी किया जाता है

मीणो के नृत्य
इनमें दो टोलियाँ होती है एक ताली बजाते हुए नृत्य को लय देती है दूसरी नृत्यकार को वृत बना कर घेरे रखती है

व्यवसायिक नृत्य :-


  भवाई नृत्य
यह नृत्य पेशेवर लोकनृत्य में बहुत लोकप्रिय है
इसमें शास्त्रीय कला की झलक मिलती है
तेज लय में विविध रंगों की पगड़ियो को हवा में फैला कर कमल का फूल बना लेना, रूमाल उठाना, गिलास पर नाचना, थाली के किनारे पर, तलवार की धार पर, कांच के टुकड़ों पर नृत्य किया जाता है
रूपसिंह, दया राम, तारा शर्मा, अस्मिता काला प्रमुख कलाकार हैं

तेरहताली नृत्य
कामड जाति के लोगों द्वारा रात रात भर यश गाथाएं कर नृत्य किया जाता है
महिलाएं नौ मंजीरे दाएं पैर में, दो मंजीरे हाथ में कोहनी के ऊपर बांधती है और दो मंजीरे हाथों में रखती है इसलिए इसे तेरहताली नृत्य कहते हैं
मंजीरा, तानपुरा, चौवारा पुरुष बजाते है

1954 में नेहरू जी के सामने गडिया लौहार सम्मेलन में यह नृत्य प्रस्तुत किया गया
मांगी बाई इस नृत्य के लिए विख्यात है 1990 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया

कच्छी घोडी नृत्य

इस नृत्य में नृत्यकार पैटर्न बनाकर नृत्य करते हैं इसमें बांस की खपच्चियों से घोडा बनाया जाता है जिसे ढककर नृत्यकार नाचते हैं

अन्य नृत्य :- 

झाँझी नृत्य -मारवाड में किया जाता है

थाली नृत्य – रावण हत्था वाघ यंत्र के

साथ किया जाता है
डांग नृत्य -वल्लभ सम्प्रदाय विशेष कर नाथद्वारा, राजसमंद के भक्तों द्वारा किया जाता है
लांगुरिया नृत्य- करौली के यदुवंशी शासकों की कुलदेवी के रूप में कैलादेवी के लख्खी मेले में गीत गाया व नृत्य किया जाता है
खारी नृत्य -यह वैवाहिक नृत्य है दुल्हन की विदाई के समय सखियों द्वारा किया जाता है
राजस्थान के मेवाड़ विशेष कर अलवर में यह नृत्य मुख्य रूप से होता है

चरवा नृत्य
माली समाज की महिलाओं के द्वारा किसी के संतान होने पर कांसे के घड़े में दीपक जलाकर सिर पर रखकर किया जाता है कांसे के घड़े के कारण चरवा नृत्य कहलाता है

सालेडा नृत्य
राजस्थान के विभिन्न प्रांतों में समृद्धि के रूप में किया जाने वाला नृत्य
रण नृत्य
मेवाड़ में विशेष रूप से प्रचलित है युवकों द्वारा तलवार आदि लेकर युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते हुए नृत्य किया जाता है

चरकूला नृत्य
राजस्थान के पूर्वी भाग में विशेष कर भरतपुर जिले में किया जाता है मूल रूप से उत्तर प्रदेश का नृत्य है

सूकर नृत्य
आदिवासियों के लोक देवता की स्मृति में मुखौटा लगा कर किया जाता है

पेजण नृत्य
बांगड में दीपावली के अवसर पर किया जाता है
आंगी -बांगी गैर नृत्य
यह चैत्र वदी तीज को रेगिस्‍तानी क्षेत्र में लाखेटा गांव में किया जाता है धोती कमीज के साथ लम्बी आंगी पहनी जाती है इसलिए आंगी गैर भी कहते हैं
तलवारों की गैर
उदयपुर से 35 किमी दूर मेनार नाम गांव में यह प्रसिद्ध है यह वहां ऊकांरेश्वर पर होता है सभी के लिए चूडीदार पजामा, अंगरखी, साफा होना आवश्यक माना जाता है

नाहर नृत्य
यह नृत्य भीलवाड़ा जिले के माण्डल कस्बे में होली के बाद रंग तेरस को किया जाता है भील, मीणा, ढोली, सरगडा जाति के लोग रूई को शरीर पर चिपका कर नाहर का वेश धारण कर नृत्य करते हैं
शाहजहां काल से यह आयोजित किया जाता है
झेला नृत्य
सहरिया आदिवासियों का यह फसली नृत्य है फसल पकने पर आषाढ़ माह में किया जाता है
इन्दरपरी नृत्य
सहरिया लोग इन्द्रपुरी के समान अलग अलग मुखौटे लगा कर नृत्य करते हैं। मुखौटे बंदर, शेर, राक्षस, हिरण आदि के मिट्टी कुट्टी के बने होते हैं

राड नृत्य
होली पर वांगड अंचल में राड खेलने की परम्परा है कहीं कंडो से, पत्थरों से, जलती हुई लकड़ी से खेला जाता है भीलूडा, जेठाना गांव में पत्थरों की राड खेली जाती है

वेरीहाल नृत्य
खैरवाडा के पास भाण्दा गांव में रंग पंचमी को किया जाता है वेरीहाल एक ढोल है

सुगनी नृत्य
यह नृत्य भिगाना व गोइया जाति के युवक युवतियों के द्वारा किया जाता है।युवतियां आकर्षक वस्त्रों में ही नहीं सजती अपितु अपने तन पर और चेहरे पर जडीबूटी का रस लेपती है और वातावरण सुंगधित होता है इसलिए यह सुगनी नृत्य के नाम से जाना जाता है

भैरव नृत्य
होली के तीसरे दिन ब्यावर में बादशाह बीरबल का मेला लगता है मेले का मुख्य आकर्षण बीरबल होता है और नृत्य करता हुआ चलता है

फूंदी नृत्य
विवाह के विशिष्ट अवसरों पर किया जाता है

बिछुड़ो नृत्य
यह कालबेलियों महिलाओं में लोकप्रिय हैं नृत्य के साथ गीत बिछुडो गाया जाता है

राजस्थान के लोक देवता(Rajasthaan ke Lokdevata)

राजस्थान के लोक देवता(Rajasthaan ke Lokdevta)


गोगाजी ( गोगा बप्पा ) (11 वीं शताब्दी):-
चैहान वंशीय राजपूत , 
जन्म स्थान - चुरू का ददरेवा गांव में हुआ। 
पिता जेवरसिंह एवं माता बाछल देवी। 
लगभग 1103 ई. सन् में मेहमूद गजनवी से गायों की रक्षा करते हुए वीरगती को प्राप्त हुए। 
गजनवी ने इन्हें ‘‘जाहरपीर ’’ की संज्ञा दी। 
इन्हे सांपो के देवता के नाम से जाना जाता हैं।
किसानों के द्वारा पहली बार हल जोतने पर हल और हाली को इनके नाम की राखी बांधी जाती हैं  जिसे ‘‘गोगाराखड़ी ’’ कहते हैं।
इनका थान खेजड़ी के वृक्ष के नीचे होता है। 
इनका मेला भाद्रपद कृष्णपक्ष की नवमी को गोगामेड़ी में भरता हैं। 
इनका प्रतीक चिन्ह नीली घोड़ी है। 
गोगाजी की ओल्ड़ी जालौर ( सांचौर ) में हैं।

गोगाजी के अन्य मन्दिर :-
गुजरात , राजस्थान , पंजाब एवं हरियाणा में हैं।

धूरमेड़ी:- गोगाजी का समाधिस्थल जो गोगामेड़ी ( हनुमानगढ़ ) में स्थित हैं।

शीर्षमेड़ी:- गोगाजी का जन्मस्थान जो ददरेवा में स्थित हैं।

नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

तेजाजी :-
यह नागवंषीय जाट। 
जन्मस्थान खड़नाल ( नागौर ) । 
पिता ताहड़जी एवं माता राजकुंवर। 
तेजाजी ने लाखा गुर्जरी की गायों को मेरों से मुक्त करवाया। इनके भोपे घोड़ले कहलाते हैं , जो सर्पदंष का इलाज करते हैं। इनका मेला भाद्रभद शुक्ल दषमी को लगता हैं। 
यह मुख्यतः अजमेर के लोकदेवता हैं।
इनके मन्दिर सुरसुरा ( अजमेर ), ब्यावर, सेंदरिया ( अजमेर ) में हैं। 
इनका मेला परबतसर ( नागौर ) में भरता हैं। यह आय की दृष्टि से राजस्थान का सबसे बड़ा पशु मेला हैं। 
इनकी घोड़ी का नाम लीलण ( सिणगारी) हैें। 
इनकी गिनती पंच पीरों में नही होती हैं।

नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।



रामदेवजी (1462 वि . सवंत् से 1515 वि. संवत् ):-
यह तंवर राजपूत जाति से थे।  
जन्मस्थान बाड़मेर के शिव तहसील के उड़काष्मेर नामक स्थान पर हुआ। 
पिता का नाम अजमालजी एवं माता का नाम मैणादे। 
पत्नी का नाम नेतलदे। 
जन्म भाद्रपद शुक्ल पक्ष की द्वितीया को एवं भाद्रपद शुक्ल एकादषी को रूणीचा में समाधि ली। 
इन्हें विष्णु का अवतार माना जाता हैं।
इन्हें रामसापीर के नाम से भी जानते हैं। 
इन्हे साम्प्रदायिक सद्भावना एवं एकता के देवता के रूप में जाना जाता हैं। 
ऊँच – नीच छुआ – छूत के विरोधी और सामाजिक समरसता के प्रतीक रूप में पूज्य क्योंकि इन्हें सभी जातियों के द्वारा पूजा जाता हैं। 
इनके द्वारा अछूतो को पुनःस्थापित करने के लिए ‘‘ कामड़िया संप्रदाय’’ की स्थापना की गई। 
कामड़िया संप्रदाय की महिलाओं के द्वारा रामदेवजी के मेले के अवसर पर तेरहताली नृत्य किया जाता हैं।
इनके गुरू बालीनाथ थे। 
इनके ‘‘पगल्ये ’’ पूजे जाते हैं। 
इनके रात्री जागरण को ‘‘जम्मा ’’ कहते हैं। 
इनकी ध्वजा नेजा कहलाती हैं , जो सफेद और पचरंगी होती हैं।
ये राजस्थान के एकमात्र देवता थे जो साहित्यकार भी हैं। 
इन्होने ‘‘24 बाणियां ’’ ( सामाजिक बुराईयों पर ) नामक पुस्तक लिखि थी। 
इनके भक्त रखियां कहलाते हैं। 
इनका मेला भाद्रपद शुक्ल पक्ष द्वितीया से दषमी तक भरता हैं। 
इनके प्रसिद्ध मन्दिर रूणीचा ( जैसलमेर ), मसुरिया ( जोधपुर ), बिराटियां ( अजमेर ), सुरताखेड़ा
( चित्तौड़गढ़ ), छोटा रामदेवरा ( गुजरात ) हैं।

नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

पाबुजी :-
जन्म 1341 विक्रम सम्वत् मंे फलौदी के कोलूमंड़ गांव में हुआ। 
ये राठौड़ वंश के थे। 
माता का नाम कमलादे एवं पिता का नाम धांधल। 
पत्नी का नाम सुप्यारदे। 
देवल चारणी की गायों को अपने बहनोई जिंदराज खींची से बचातें हुए प्राण त्यागे। 
देवल चारणी ने अपनी घोड़ी केसर कालमी पाबूजी को दी थी। चांदा , डेमा और हरमल पाबूजी के सहयोगी थे। 
पाबुजी को लक्ष्मण का अवतार मानते हैं। 
इनके जन्म व मृत्यु के दिन लोकगाथा ‘‘ पाबुजी के पावड़े ’’ गाये जाते हैं। 
रेबारी ( राइका , नाइक, थोरी ) जाति के अराध्य देवता हैं।
प्रमुख पुस्तक ‘‘ पाबु प्रकाष ’’ हैं।
इसके लेखक ‘‘ आंसिया मोड़जी ’’ हैं।
पाबूजी कीफड़ सर्वांधिक लोकप्रिय फड़ हैं।
इसकी मूल प्रतिलिपिवर्तमान में जर्मनी के संग्रहालय में रखी हुई हैं। 
फड़ गाते समय रावणहत्थाबजाया जाता हैं।
मेला चैत्र अमावस्या को भरता हैं। 
पाबूजी प्लेग और ऊँटो के रक्षक देवता के रूप में पूजे जाते हैं , क्योंकिजब भी ऊँट बीमार होता हैं तब इनकी फड़ बांची जाती हैं।

नोट:-निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

हड़बुजी:-
जन्म नागौर के भूड़ेल गांव में हुआ। 
पिता का नाम मेहाजी सांखला। 
इनका कार्यस्थल बैगंटी रहा। 
इनकी गाड़ी की पूजा की जाती हैं। क्योंकि यह बैलगाड़ी से लावारिस पशुओं के लिए चारा लाते थे। 
हड़बुजी रामदेवजी के मौसेरे भाई थे। 
इन्होने रामदेवजी के समाज- सुधार के कार्यों को पूरा करने का प्रयास किया था।
नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

देवनारायण जी:-
जन्म स्थान भीलवाड़ा के आंसिद गांव में सम्वत् 1300 में हुआ। पिताजी संवाई भोज एवं माता सेडू खटाणी।
यह गुर्जर बगड़ावत वंष के थे। ब

चपन का नाम उदयसिंह। 
पत्नी पीपलदे , जो मध्यप्रदेश के धार के शासक
जयसिंह की पुत्री थी। 
विष्णु का अवतार माना जाता हैं। 
इनकी फड़ सबसे लम्बी हैं जो 35 गज हैं। 
इनकी फड़ पर भारत सरकार के द्वारा 5 रु का टिकट भी जारी किया जा चुका हैें। 
भाद्र शुक्ल छठ और सप्तमी को मेला भरता हैं।
इनका प्रमुख मंदिर आंसिद ( भीलवाड़ा ), देवधाम जोधपुरिया ( टोंक ), देवडूंगरी ( चित्तौड़गढ़ ) और देवमाली
( ब्यावर ) में हैं।
नोट:-निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

मेहाजी :-
मारवाड़ के लोकदेवता। 
मांगलिया ( राजपूत ) जाति के अराध्य देव हैं। 
इन्हे पंचपीरों में गिना जाता हैं , 
घोड़ा किरड़ काबरा हैं। 
इनका मेला जोधपुर के बापणी गांव में कृष्ण जन्माष्टमी को भरता हैं। 
जैसलमेर के रांणगदेव से युद्ध करते हुए शहीद हुए।

नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक

भूरिया बाबा:-
यह गोमतेष्वर के नाम से जाने जाते हैें। 
यह मारवाड़ ( गोड़वाड़ ) के मीणा जाति के आराध्य देव हैं। 
दक्षिण राजस्थान के मीणा कभी भी इनकी झूठी कसम नहीं खाते हैं।

नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

मल्लीनाथजी :-
जन्म 1358 ई. सन् में हुआ। 
पिता का नाम तीड़ाजी एवं माता का नाम जाणीदेव। 
इन्होने निजामुद्दीन की सेना को परास्त किया था। 
इनका मेला चैत्र कृष्ण एकादषी से पन्द्रह दिन तक लूणी नदी के किनारे तिलवाड़ा‌ ( बाड़मेर ) नामक स्थान पर पशु मेला भरता हैं। 
यह मेला मल्लीनाथजी के राज्याभिषेक के अवसर से वर्तमान तक आयोजित हो रहा हैं।
बाड़मेर का गुड़ामलानी का नामकरण मल्लीनाथजी के नाम पर ही हुआ हैं।

नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

कल्लाजी :-
इनका जन्म मेड़ता ( सामियाना ) में हुआ था। 
मीराबाई इनकी बुआ थी। 
चित्तौड़ के तीसरे शाके (1567 ) में मुगल अकबर की सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। 
यह चार हाथ वाले लोकदेवता हैें। 
इनकी पूजा भूत- पिषाच से ग्रस्त व्यक्ति, पागल कुत्ते, विषैले नाग के काटने पर की जाती हैं। 
इनकी मुख्य पीठ जालौर के रनैला गांव में हैं। 
इन्हे शेषनाग का अवतार माना जाता हैं।
नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।.



बिग्गाजी :-
जाखड़ समाज के इष्टदेव। 
जन्म बीकानेर के रीढ़ी गांव में हुआ। 
इन्होने मुस्लिम लुटेरों से गायों की रक्षा की। 
डूंगरपुर के बिग्गा गांव में इनका मुख्य थान हैं।

नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

झुंझारजी :-
इनका जन्म सीकर में हुआ था। 
खेजड़ी के पेड़ के नीचे इनका निवास स्थान माना जाता हैं।
नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

देवबाबा :-
इनका जन्म भरतपुर के नांगल गांव में हुआ था। 
यह गुर्जर व ग्वालों के अराध्य देव हैं। 
इन्हे पशु चिकित्सा का अच्छा ज्ञान था। 
इनका मेला भाद्रपद शुक्ल ( सुदी ) पंचमी एवं चैत्र सुदी पंचमी को भरता हैं।

नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

मामादेव :-
मेवाड़ में बरसात के देवता के रूप में पूजे जाते हैं। 
इनकी मूर्ति लकड़ी की होती हैं , जो मुख्य द्वार पर तोरण के रूप में एवं गांव के बाहर सड़क के किनारे रखी जाती हैं।

नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

तल्लीनाथजी:-
यह राठौड़ वंषीय थे। 
इनका मुख्य मन्दिर पांचोटा पहाड़ी ( जालौर ) में पड़ता हैं।
इनके बचपन का नाम ‘‘ गांग देव’’ था। 
इनके गुरू जलन्धर ने इनका नाम तल्लीनाथ रखा था।

नोट:- निर्गुण निराकार ईष्वर के उपासक।

Wednesday, 18 January 2023

राजस्थान के आभूषण


राजस्थानी स्त्रियों के आभूषण :-





• सिर के आभूषण -
                           शी‌शफूल (सिरफूल / सिरेज ), सिरमांग, रखड़ी, बोर (बोरला), गोफण, पत्री, टिकडा़, मेमंद, फूलगुघर, मैण।

गले के आभूषण : -  कंठी, कंठी सर कौन गाड़



कान के आभूषण :-
                                कर्णफूल, पीपलपत्रा,  फूल झुमका,  अंगोट्या, झेला, लटकन, टोटी ।


बाजू के आभूषण :- ठ्डडा, आरत, अणंत, तकमा, बाजूबंद, चूड़ला, गजरा, हारपान, नवरतन, बट्टा आदि।

हाथ के आभूषण :- 
                              कड़ा, कंकण , मोकड़ी (लाख से निर्मित चूड़ी), कातरया (कांच की चूड़ी), नोगरी, चांट, गजरा, गोखरू, चूड़ी प्रमुख है।

कमर के आभूषण :- 

पैर के आभूषण :-

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